न्याय दर्शन का सामान्य परिचय | Nyaya Darshan ka Samanya Parichaya

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Nyaya Darshan ka Samanya Parichaya

Nyaya Darshan ka Samanya Parichaya न्याय दर्शन भारतीय दर्शन के छह प्रमुख आस्तिक दर्शनों में से एक है, जिसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य को सत्य और न्याय की प्राप्ति में मार्गदर्शन करना है। यह दर्शन विशेष रूप से तर्क और प्रमाण पर आधारित है, और इसका उद्देश्य ज्ञान की सही और प्रमाणिक प्रक्रिया को समझना है। न्याय दर्शन का प्रमुख तत्व है तर्कशास्त्र, जो अन्य दर्शनों से इसे विशिष्ट बनाता है।

न्याय दर्शन को भारतीय तर्कशास्त्र का जनक भी कहा जाता है। न्याय दर्शन तर्क, ज्ञान, और वास्तविकता के बारे में गहन चर्चा करता है। यह दर्शन हमें सही और गलत के बीच अंतर करना सिखाता है और तर्क के माध्यम से सत्य की खोज करने का मार्ग दिखाता है।
मुख्य बिंदु:
* तर्कशास्त्र का जनक: न्याय दर्शन को भारतीय तर्कशास्त्र का जनक माना जाता है।
* ज्ञान और वास्तविकता: यह दर्शन ज्ञान और वास्तविकता के बारे में गहन चर्चा करता है।
* सही और गलत: न्याय दर्शन हमें सही और गलत के बीच अंतर करना सिखाता है।
* सत्य की खोज: यह दर्शन तर्क के माध्यम से सत्य की खोज करने का मार्ग दिखाता है।

Nyaya Darshan ka Samanya Parichaya

न्याय दर्शन का सामान्य परिचय

दोस्तों दर्शन शास्त्र दो प्रकार का होता है यथा – भारतीय दर्शन तथा पाश्चात्य दर्शन। भारतीय दर्शन मध्य दो प्रकार का होता है एक है आस्तिक एवं दूसरा नास्तिक है।

आस्तिक दर्शन

आस्तिक दर्शन – “अस्ति इति आस्तिक” अर्थात जिनमें वेदों को प्रमाणरूप में स्वीकार किया गया है वे आस्तिक दर्शन होता हैं। ये आस्तिक दर्शन ६ प्रकार का होता हैं।

यथा –
१ – सांख्य – ( प्रवर्तक महर्षि कपिल )
२ – योग – ( प्रवर्तक महर्षि पतंजलि)
३ – न्याय – ( प्रवर्तक महर्षि गौतम )
४ – वैशेषिक – (प्रवर्तक महर्षि कणाद)
५ – पूर्वमीमांसा – ( प्रवर्तक महर्षि जैमिनी)
६ – उत्तरमीमांसा(वेदान्त) – (प्रवर्तक महर्षि वादरायण)

नास्तिक दर्शन

नास्तिक दर्शन – “नास्ति इति नास्तिक” अर्थात जो दर्शन वेदों को प्रमाणरूप में स्वीकार नहीं करते, उन्हें महत्ता प्रदान नहीं करते उनको नास्तिक दर्शन कहा गया है। ये नास्तिक दर्शन मध्य ६ प्रकार का होता हैं।

यथा –
१ – चार्वाक – (प्रवर्तक बृहस्पति)
२ – जैन – (प्रवर्तक ऋषभदेव )
३ – बौद्ध की ४ संप्रदाय – (प्रवर्तक बुद्धदेव)
१ – वैभाषिक
२ – सौत्रान्तिक
३ – माध्यमिक
४ – योगाचार

न्याय दर्शन का अर्थ

दोस्तों संस्कृत में कहा गया है “नीयते प्राप्यते विवक्षितार्थ सिद्धि नाम न्याय” अर्थात जिस साधन के माध्यम से हम अपने ज्ञेय तत्त्व को जान पाते हैं, वही साधन न्याय है।
ओर “प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः” अर्थात प्रमाणोके माध्यम से जो अर्थ सिद्धान्त का परीक्षण कियाजता है, वही न्याय है ।

न्याय दर्शन का विभागी करण तथा उनके कर्तादि

न्याय दर्शन दो तरह कि होता है। १–प्राचीन न्याय, २– नव्यन्याय।
प्राचीन न्याय की प्रवर्तक महर्षि अक्षपाद गौतम।
नव्यन्याय की प्रवर्तक गंगेश उपाध्याय।
न्यायदर्शन का भाष्यकार श्रीवात्स्यायन तथा वार्तिककार उद्योतकर ।

न्याय दर्शन कि विषय

न्याय दर्शन में ५ अध्याय और १० आह्निक, ८४ प्रकरण और ५२८ सूत्र होता हैं। न्याय दर्शन मैं १६ पदार्थ, १२ प्रमेय, ४ प्रमाण, ४ करण आदि विषया हैं।

न्याय दर्शन में १६ पदार्थ

प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डता, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान।

न्याय दर्शन में १२ प्रमेय

आत्मा, शरीर, अर्थ, बुद्धि, अपबर्ग, मन, इन्द्रिय, प्रवृत्ति, दोष, प्रत्यभाव, फल, दुःख।

न्याय दर्शन में ४ प्रमाण

प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द।

न्याय दर्शन में ४ करण

प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति, शब्द।

न्याय दर्शन कि अन्यनाम

न्याय शास्त्र, न्याय विद्या, अन्युक्षिकी, हेतु शास्त्र, तर्क शास्त्र, पीठरपाकवाद आदि।

न्याय दर्शन कि प्रशंसा

प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् ।
आश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे प्रकीर्तिता ।।’ ( वात्स्यायन )

यह श्लोक न्याय दर्शन की महत्ता को दर्शाता है और यह बताता है कि न्याय दर्शन, या तर्कशास्त्र, सभी प्रकार के ज्ञान और कार्यों का मार्गदर्शक होता है। इसे विद्या के क्षेत्र में एक दीपक के समान माना जाता है, जो अंधकार को दूर करके सच्चाई और सही मार्ग को उजागर करता है। न्याय दर्शन न केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपितु प्रत्येक कर्म के सही और उचित मार्ग को अपनाने के लिए आवश्यक है। यह श्लोक यह भी बताता है कि सभी धर्मों (अर्थात जीवन के सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों) का आधार न्याय दर्शन ही है। यह दर्शन, विद्या के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सही मार्ग और माध्यम प्रदान करता है।

विस्तार व्याख्या से इस श्लोक को अगर देखे तो “प्रदीपः” शब्द से तात्पर्य दीपक से है, जो अंधेरे को दूर करता है और प्रकाश फैलाता है। इसी प्रकार न्याय दर्शन सभी प्रकार के ज्ञान को स्पष्ट रूप से समझने और सही रास्ते पर चलने का प्रकाश प्रदान करता है।

“सर्वविद्यानामुपायः” का अर्थ है कि न्याय दर्शन सभी प्रकार के ज्ञान प्राप्ति के उपायों को सुसंगत और प्रमाणिक रूप से प्रस्तुत करता है। यह किसी भी विषय या ज्ञान को सही तरीके से समझने और सत्य तक पहुँचने का एक आदर्श तरीका है।

“सर्वकर्मणाम्” का मतलब है कि सभी प्रकार के कार्यों और कर्मों का आधार न्याय दर्शन है। यह हमें बताता है कि किसी भी कार्य को करने से पहले उस कार्य के तर्क, प्रमाण और सही उद्देश्य को समझना चाहिए। यह दर्शन जीवन के हर क्षेत्र में कार्यों के सही दिशा और उद्देश्य की पहचान करने में मदद करता है।

“आश्रयः सर्वधर्माणां” यह पंक्ति यह बताती है कि न्याय दर्शन केवल तर्कशास्त्र का एक अध्ययन नहीं है, बल्कि यह सभी जीवन के सिद्धांतों और धर्मों का आधार है। यह जीवन के सही दिशा और उद्देश्य को पहचानने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है। न्याय दर्शन ने न केवल तर्क और प्रमाण के माध्यम से ज्ञान प्राप्ति का मार्ग बताया है, बल्कि यह धर्म, नैतिकता और जीवन के सही सिद्धांतों के पालन में भी सहायक है।

अंत में, “विद्योद्देशे प्रकीर्तिता” का तात्पर्य है कि न्याय दर्शन का उद्देश्य ज्ञान के उद्देश्य को स्पष्ट करना है। यह दर्शन शिक्षा, तर्क और ज्ञान के सही उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।

इस प्रकार, यह श्लोक न्याय दर्शन की गहरी महत्ता और इसके जीवन में योगदान को रेखांकित करता है, जो न केवल ज्ञान बल्कि सही कार्य और धर्म के मार्ग को भी निर्धारित करता है।

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न्याय दर्शन का इतिहास और विकास

न्याय दर्शन की उत्पत्ति और विकास का श्रेय महर्षि गौतम को दिया जाता है, जिन्होंने न्याय सूत्र की रचना की। यह सूत्र तर्क और प्रमाण के विभिन्न प्रकारों पर आधारित हैं, जिन्हें वे ‘प्रमाण’ और ‘सिद्धांत’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। न्याय दर्शन का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए सही तर्कों और विचारों का उपयोग करना है, ताकि व्यक्ति सत्य तक पहुँच सके।

न्याय दर्शन का तात्त्विक आधार यह है कि किसी भी प्रकार का ज्ञान केवल तर्क और प्रमाण के आधार पर ही सही माना जा सकता है। इसके अनुसार, सही ज्ञान केवल उन्हीं स्रोतों से प्राप्त किया जा सकता है, जो प्रमाणित हों। न्याय दर्शन में ‘प्रमाण’ का महत्व अत्यधिक है और इसे चार प्रकारों में बाँटा गया है प्रत्यक्ष , अनुमान, उपमान, शब्द। ये प्रमाण तर्क की प्रक्रिया को सुसंगत और स्पष्ट बनाने में सहायक होते हैं।

न्याय दर्शन का उद्देश्य

न्याय दर्शन का प्रमुख उद्देश्य सत्य और न्याय की खोज करना है। यह दर्शन यह मानता है कि सही ज्ञान ही व्यक्ति को सही निर्णय लेने और सही मार्ग पर चलने में सहायता प्रदान करता है। न्याय दर्शन में ज्ञान की प्राप्ति को प्रमाणों और तर्कों द्वारा सत्यापित किया जाता है, और इसे किसी भी प्रकार के भ्रम और मिथक से बचाने की कोशिश की जाती है।

न्याय दर्शन और तर्कशास्त्र

न्याय दर्शन की विशिष्टता इसके तर्कशास्त्र में निहित है। इसमें तर्कों के माध्यम से किसी भी वस्तु या घटनाक्रम का विश्लेषण और मूल्यांकन किया जाता है। यह दर्शन विशेष रूप से ‘प्रमाण’, ‘प्रत्याक्ष’, ‘अनुमान’, ‘उपमान’ और ‘शब्द’ आदि जैसे तात्त्विक आधारों का उपयोग करता है। न्याय दर्शन में प्रत्येक व्यक्ति को अपने तर्कों और प्रमाणों से सत्य की ओर अग्रसर होने का अवसर मिलता है।

न्याय दर्शन का समाज पर प्रभाव

न्याय दर्शन ने भारतीय समाज में ज्ञान, तर्क और प्रमाण के महत्व को स्पष्ट किया। यह दर्शन न केवल बौद्धिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि समाज में न्याय और सच्चाई के लिए एक बुनियादी आधार भी प्रदान करता है। न्याय दर्शन का अध्ययन करने से व्यक्ति अपने जीवन में तर्कशील और सत्यवादी बनता है, जो समाज की प्रगति में सहायक होता है।

निष्कर्ष

न्याय दर्शन भारतीय दर्शन के छह आस्तिक दर्शनों में एक प्रमुख स्थान रखता है। इसका योगदान भारतीय तर्कशास्त्र, ज्ञानविज्ञान और न्याय के सिद्धांतों के विकास में अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है। यह दर्शन हमें यह सिखाता है कि सत्य की प्राप्ति केवल सही प्रमाण और तर्क के माध्यम से संभव है, और जीवन में सही निर्णय लेने के लिए यह आवश्यक है।

RN Tripathy

लेखक परिचय – [रुद्रनारायण त्रिपाठी] मैं एक संस्कृत प्रेमी और भक्तिपूर्ण लेखन में रुचि रखने वाला ब्लॉग लेखक हूँ। AdyaSanskrit.com के माध्यम से मैं संस्कृत भाषा, न्याय दर्शन, भक्ति, पुराण, वेद, उपनिषद और भारतीय परंपराओं से जुड़े विषयों पर लेख साझा करता हूँ, ताकि लोग हमारे प्राचीन ज्ञान और संस्कृति से प्रेरणा ले सकें।

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