श्री शिव अपराध क्षमापन स्तोत्रम् । Shri Shiva Apraadha Kshamapana Stotram

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Shri Shiva Apraadha Kshamapana Stotram

Shri Shiva Apraadha Kshamapana Stotram. हर इंसान से कभी न कभी कुछ ऐसी भूल हो ही जाती है, जिसे सोचकर मन बेचैन हो उठता है। हम चाहे जितनी भी पूजा-पाठ करें, अगर मन में अपराध बोध हो तो शांति नहीं मिलती। ऐसे में भगवान शिव के चरणों में झुककर क्षमा माँगने का सबसे सुंदर तरीका है—“श्री शिव अपराध क्षमापन स्तोत्रम्”।

यह सिर्फ एक स्तोत्र नहीं है, बल्कि आत्मा की पुकार है। यह उन भावनाओं को शब्द देता है, जिन्हें हम अक्सर व्यक्त नहीं कर पाते। जब हम इसे पढ़ते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे हम अपने सारे पापों और गलतियों का बोझ शिवजी के चरणों में रख देते हैं।

तो चलिए, जानते हैं इस स्तोत्र की महिमा, इसकी गहराई और यह कैसे हमारे जीवन को बदल सकता है।

Shri Shiva Apraadha Kshamapana Stotram

श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रम्

आदौ कर्मप्रसङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां
विण्मूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदाः ।
यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ।१।

बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा
नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति ।
नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवशः शङ्करं न स्मरामि । क्षन्तव्यो ०।२।

प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पञ्चभिर्मर्मसन्धौ
दष्टो नष्टो विवेकः सुतधनयुवतिस्वादसौख्ये निषण्णः।
शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं । क्षन्तव्यो० ।३।

वार्द्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापैः
पापै रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपुः प्रौढिहीनं च दीनम् ।
मिथ्यामोहाभिलाषैर्भमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं । क्षन्तव्यो०।४।

नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं
श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गे सुसारे।
नास्था धर्मे विचारः श्रवणमननयोः किं निदिध्यासितव्यं । क्षन्तव्यो०।५।

स्त्रात्वा प्रत्यूषकाले स्त्रपनविधिविधौ नाहृतं गाङ्गतोयं
पूजार्थ वा कदाचिद्बहुतरगहनात्खण्डबिल्वीदलानि ।
नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धपुष्पे त्वदर्थं । क्षन्तव्यो० ।६।

दुग्धैर्मध्वाज्ययुक्तैर्दधिसितसहितैः स्नापितं नैव लिङ्गं
नो लिप्तं चन्दनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः ।
धूपैः कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतैर्नैव भक्ष्योपहारैः । क्षन्तव्यो०।७।

ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो
हव्यं ते लक्षसंख्यैर्हतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रैः ।
नो तप्तं गाङ्गतीरे व्रतजपनियमै रुद्रजाप्यैर्न वेदैः । क्षन्तव्यो० ।८।

स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुण्डले सूक्ष्ममार्गे
शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपे पराख्ये ।
लिङ्गज्ञे ब्रह्मवाक्ये सकलतनुगतं शङ्करं न स्मरामि । क्षन्तव्यो० ।९।

नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो
नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विदितभवगुणो नैव दृष्टः कदाचित् ।
उन्मन्यावस्थया त्वां विगतकलिमलं शंकरं न स्मरामि । क्षन्तव्यो० । १० ।

चन्द्रोद्धासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शंकरे
सर्वैर्भूषितकण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थवैश्वानरे ।
दन्तित्वक्कृतसुन्दराम्बरधरे त्रैलोक्यसारे हरे
मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिमखिलामन्यैस्तु किं कर्मभिः ॥ ११ ॥

किं वानेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं
किं वा पुत्रकलत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम् ।
ज्ञात्वैतत्क्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः
स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज भज श्रीपार्वतीवल्लभम् ॥ १२ ॥

आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं
प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः ।
लक्ष्मीस्तोयतरङ्ग‌भङ्गचषला विद्युच्चलं जीवितं
तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ॥ १३ ॥

करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥ १४ ॥

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

 

श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित

आदौ कर्मप्रसङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां
विण्मूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदाः ।
यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ।१।

पहले कर्मप्रसंग से किया हुआ पाप मुझे माता की कुक्षि में ला बिठाता है, फिर उस अपवित्र विष्ठा-मूत्र के बीच जठराग्नि खूब सन्तप्त करता है । वहाँ जो-जो दुःख निरन्तर व्यथित करते रहते हैं उन्हें कौन कह सकता है ? हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ।

बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा
नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति ।
नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवशः शङ्करं न स्मरामि । क्षन्तव्यो ०।२।

बाल्यावस्था में दुःख की अधिकता रहती थी, शरीर मल-मूत्र से लिथड़ा रहता था । और निरन्तर स्तनपान की लालसा रहती थी; इन्द्रियों में कोई कार्य करने की सामर्थ्य न थी; शैवी माया से उत्पन्न हुए नाना जन्तु मुझे काटते थे; नाना रोगादि दुःखों के कारण मैं रोता ही रहता था, (उस समय भी) मुझसे शंकर का स्मरण नहीं बना, इसलिये हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो।

प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पञ्चभिर्मर्मसन्धौ
दष्टो नष्टो विवेकः सुतधनयुवतिस्वादसौख्ये निषण्णः।
शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं । क्षन्तव्यो० ।३।

जब मैं युवा-अवस्था में आकर प्रौढ़ हुआ तो पाँच विषयरूपी सर्पों ने मेरे मर्मस्थानों में डंसा (काटा) , जिससे मेरा विवेक नष्ट हो गया और मैं धन, स्त्री और सन्तान के सुख भोगने में लग गया । उस समय भी आपके चिन्तन को भूलकर मेरा हृदय बड़े घमण्ड और अभिमान से भर गया । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ।

वार्द्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापैः
पापै रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपुः प्रौढिहीनं च दीनम् ।
मिथ्यामोहाभिलाषैर्भमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं । क्षन्तव्यो०।४।

वृद्धावस्था में भी, जब इन्द्रियों की गति शिथिल हो गयी है, बुद्धि मन्द पड़ गयी है और आधिदैविकादि तापों, पापों, रोगों और वियोगों से शरीर जर्जरित हो गया है, मेरा मन मिथ्या मोह और अभिलाषाओं से दुर्बल और दीन होकर (आप) श्रीमहादेवजीके चिन्तनसे शून्य ही भ्रम रहा है। अतः हे शिव! हे शिव! हे शंकर! हे महादेव! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो।

नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं
श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गे सुसारे।
नास्था धर्मे विचारः श्रवणमननयोः किं निदिध्यासितव्यं । क्षन्तव्यो०।५।

पद-पदपर अति गहन प्रायश्चित्तोंसे व्याप्त होनेके कारण मुझसे तो स्मार्तकर्म भी नहीं हो सकते, फिर जो द्विजकुलके लिये विहित हैं, उन ब्रह्मप्राप्तिके मार्गस्वरूप श्रौतकर्मोंकी तो बात ही क्या है ? धर्ममें आस्था नहीं है और श्रवण-मननके विषयमें विचार ही नहीं होता, निदिध्यासन (ध्यान) भी कैसे किया जाय ? अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो! क्षमा करो।

स्त्रात्वा प्रत्यूषकाले स्त्रपनविधिविधौ नाहृतं गाङ्गतोयं
पूजार्थ वा कदाचिद्बहुतरगहनात्खण्डबिल्वीदलानि ।
नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धपुष्पे त्वदर्थं । क्षन्तव्यो० ।६।

प्रातःकाल स्नान करके आपका अभिषेक करने के लिये मैं गंगाजल लेकर प्रस्तुत नहीं हुआ, न कभी आपकी पूजा के लिये वन से बिल्वपत्र ही लाया और न आपके लिये तालाब में खिले हुए कमलों की माला तथा गन्ध-पुष्प ही लाकर अर्पण किये । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ।

दुग्धैर्मध्वाज्ययुक्तैर्दधिसितसहितैः स्नापितं नैव लिङ्गं
नो लिप्तं चन्दनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः ।
धूपैः कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतैर्नैव भक्ष्योपहारैः । क्षन्तव्यो०।७।

मधु, घृत, दधि और शर्करायुक्त दूध (पंचामृत) से मैंने आपके लिंग को स्नान नहीं कराया, चन्दन आदि से अनुलेपन नहीं किया, धतूरे के फूल, धूप, दीप, कपूर तथा नाना रसों से युक्त नैवेद्यों द्वारा पूजन भी नहीं किया। अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! प्रभु क्षमा करो ।

ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो
हव्यं ते लक्षसंख्यैर्हतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रैः ।
नो तप्तं गाङ्गतीरे व्रतजपनियमै रुद्रजाप्यैर्न वेदैः । क्षन्तव्यो० ।८।

मैंने चित्त में शिव नामक आपका स्मरण करके ब्राह्मणों को प्रचुर धन नहीं दिया, न आपके एक लक्ष बीजमन्त्रों द्वारा अग्नि में आहुतियाँ दीं और न व्रत एवं जप के नियम से तथा रुद्रजाप और वेदविधि से गंगातट पर कोई साधना ही की । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो।

स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुण्डले सूक्ष्ममार्गे
शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपे पराख्ये ।
लिङ्गज्ञे ब्रह्मवाक्ये सकलतनुगतं शङ्करं न स्मरामि । क्षन्तव्यो० ।९।

जिस सूक्ष्ममार्गप्राप्य सहस्त्रदल कमल में पहुँचकर प्राणसमूह प्रणवनाद में लीन हो जाते हैं और जहाँ जाकर वेद के वाक्यार्थ तथा तात्पर्यभूत पूर्णतया आविर्भूत ज्योतिरूप शान्त परम तत्त्व में लीन हो जाता है, उस कमल में स्थित होकर मैं सर्वान्तर्यामी कल्याणकारी आपका स्मरण नहीं करता हूँ । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो ।

नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो
नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विदितभवगुणो नैव दृष्टः कदाचित् ।
उन्मन्यावस्थया त्वां विगतकलिमलं शंकरं न स्मरामि । क्षन्तव्यो० । १० ।

नग्न, निःसंग, शुद्ध और त्रिगुणातीत होकर, मोहान्धकार का ध्वंस कर तथा नासिकाग्र में दृष्टि स्थिर कर मैंने (आप) शंकर के गुणों को जानकर कभी आपका दर्शन नहीं किया और न उन्मनी-अवस्था से कलिमल रहित आप कल्याणस्वरूप का स्मरण ही करता हूँ । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो ।

चन्द्रोद्धासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शंकरे
सर्वैर्भूषितकण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थवैश्वानरे ।
दन्तित्वक्कृतसुन्दराम्बरधरे त्रैलोक्यसारे हरे
मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिमखिलामन्यैस्तु किं कर्मभिः ॥ ११ ॥

चन्द्रकला से जिनका ललाट-प्रदेश भासित हो रहा है, जो कन्दर्पदर्पहारी हैं, गंगाधर हैं, कल्याणस्वरूप हैं, सर्पों से जिनके कण्ठ और कर्ण भूषित हैं, नेत्रों से अग्नि प्रकट हो रहा है, हस्तिचर्म की जिनकी कन्था है तथा जो त्रिलोकी के सार हैं, उन शिव में मोक्ष के लिये अपनी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों को लगा दे; और कर्मों से क्या प्रयोजन है ?

किं वानेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं
किं वा पुत्रकलत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम् ।
ज्ञात्वैतत्क्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः
स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज भज श्रीपार्वतीवल्लभम् ॥ १२ ॥

इस धन, घोड़े, हाथी और राज्यादि की प्राप्ति से क्या ? पुत्र, स्त्री, मित्र, पशु, देह और घर से क्या ? इनको क्षणभंगुर जानकर रे मन ! दूर ही से त्याग दे और आत्मानुभव के लिये गुरुवचनानुसार पार्वतीवल्लभ श्रीशंकर का भजन कर ।

आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं
प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः ।
लक्ष्मीस्तोयतरङ्ग‌भङ्गचषला विद्युच्चलं जीवितं
तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ॥ १३ ॥

देखते-देखते आयु नित्य नष्ट हो रही है, यौवन प्रतिदिन क्षीण हो रहा है; बीते हुए दिन फिर लौटकर नहीं आते; काल सम्पूर्ण जगत् को खा रहा है । लक्ष्मी जल की तरंगमाला के समान चपल है; जीवन बिजली के समान चंचल है; अतः मुझ शरणागत की हे शरणागतवत्सल शंकर ! अब रक्षा करो ! रक्षा करो ।

करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥ १४ ॥

हाथों से, पैरों से, वाणी से, शरीर से, कर्म से, कर्णों से, नेत्रों से अथवा मन से भी जो अपराध किये हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको हे करुणा- सागर महादेव शम्भो ! क्षमा कीजिये । आपकी जय हो, जय हो ।

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

क्या आपने कभी भगवान शिव से माफ़ी मांगी है?

हर इंसान से जीवन में कभी ना कभी कोई ना कोई गलती ज़रूर हो जाती है। ऐसे में जब हम भगवान के सामने अपने अपराधों के लिए सिर झुकाते हैं, तो वो क्षमा भी कर देते हैं। पर क्या आपने कभी किसी स्तोत्र के माध्यम से भगवान शिव से क्षमा याचना की है? अगर नहीं, तो “श्री शिव अपराध क्षमापन स्तोत्रम्” इसके लिए सबसे सुंदर और प्रभावशाली साधन है।

आइए, इस लेख में हम जानेंगे कि यह स्तोत्र क्या है, इसकी विशेषताएँ क्या हैं, और इसे पढ़ने से हमें कैसे आध्यात्मिक शांति प्राप्त हो सकती है।

श्री शिव अपराध क्षमापन स्तोत्रम् क्या है?

यह स्तोत्र एक विनम्र क्षमा याचना है, जो विशेष रूप से भगवान शिव को समर्पित है। इसे आदिगुरु आदि शंकराचार्य ने रचा था। यह स्तोत्र हमें सिखाता है कि जब भी हमसे कोई अनजाने में या जानबूझकर अपराध हो जाए, तो हमें ईश्वर के सामने पूरी श्रद्धा से क्षमा मांगनी चाहिए।

स्तुति में लेखक अपने हर छोटे-बड़े पाप, अपमान, और अनुचित आचरण के लिए भगवान शिव से माफी माँगते हैं। इस पूरे स्तोत्र में एक गहरा भाव छुपा होता है—निर्विवाद समर्पण और आत्मबोध।

क्यों पढ़ा जाता है यह स्तोत्र?

आप सोच सकते हैं—हम इतनी पूजा, अर्चना, व्रत और उपवास करते हैं, तो फिर एक क्षमापन स्तोत्र की ज़रूरत क्यों?

असल में, हमारी पूजा-पाठ में जाने-अनजाने कई त्रुटियाँ रह जाती हैं। कभी मंत्र सही नहीं उच्चारित होते, तो कभी मन भटकता है। कभी अहंकार आ जाता है, तो कभी आलस्य हावी हो जाता है। ऐसे में, यह स्तोत्र ईश्वर से कहता है—“हे प्रभु! मुझसे भूल हो गई, कृपया मुझे क्षमा करें।”

इस भाव के साथ जब हम यह स्तोत्र पढ़ते हैं, तो हमारा मन निर्मल होता है और आत्मा हल्की महसूस करती है।

स्तोत्र की भावनात्मक गहराई

यह स्तोत्र सिर्फ क्षमा याचना नहीं है, बल्कि आत्मा का प्रकटिकरण भी है। इसमें जो भावनाएँ व्यक्त होती हैं, वो हमारे जीवन के हर पहलू को छूती हैं।

लेखक स्वीकार करते हैं कि उन्होंने जीवन में अनेकों बार भगवान को भूला है, संसारिक सुखों में फंसे हैं, और कभी-कभी अहंकार के वशीभूत होकर गलत काम भी किए हैं। लेकिन अंततः जब आत्मा जागती है, तो वो उसी ईश्वर की शरण में लौटती है। यही तो शिव हैं—दया के सागर, सर्वक्षमाशील।

कब और कैसे पढ़ना चाहिए?

इस स्तोत्र को किसी विशेष समय में पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती। आप इसे कभी भी पढ़ सकते हैं, लेकिन ब्रह्म मुहूर्त या संध्या के समय इसका प्रभाव विशेष रूप से महसूस किया जा सकता है।

पढ़ते समय एकाग्रता ज़रूरी है। आप चाहें तो शिवलिंग के सामने बैठकर दीप जलाकर इसका पाठ करें, या फिर मन में भगवान का ध्यान करते हुए इसे शांति से पढ़ें। भावना सबसे महत्वपूर्ण है—यदि मन सच्चा है, तो शिव तक आपकी प्रार्थना अवश्य पहुँचेगी।

क्यों है यह आज के समय में भी प्रासंगिक?

आज की दुनिया में इंसान तेज़ी से दौड़ रहा है—काम, पैसा, रिश्ते, और इच्छाओं के पीछे। लेकिन इसी भागदौड़ में वो भूल जाता है कि आत्मा को भी शांति चाहिए।

यह स्तोत्र हमें रोककर सोचने पर मजबूर करता है—क्या मैं सच में अपने जीवन को सही दिशा में चला रहा हूँ? क्या मेरे कर्म शिव को स्वीकार होंगे?

इन सवालों का जवाब हमें इसी स्तोत्र में मिलता है। जब हम अपराध स्वीकार कर लेते हैं, तो हमारा मन हल्का होता है। और जब हम क्षमा पा जाते हैं, तो भीतर एक नई ऊर्जा का संचार होता है।

इसके शब्दों में छिपी शक्ति

इस स्तोत्र में जो शब्द प्रयोग किए गए हैं, वो साधारण नहीं हैं। हर पंक्ति में भक्ति, विनम्रता और गहन दर्शन छिपा है। जब आप “अपराधान मे कृष्णय त्वं” जैसे वाक्य पढ़ते हैं, तो मन खुद-ब-खुद झुक जाता है।

हर बार जब यह स्तोत्र दोहराया जाता है, तो उसके शब्द दिल को छूते हैं। धीरे-धीरे वो सिर्फ शब्द नहीं रह जाते, बल्कि अनुभव बन जाते हैं। यही तो मंत्रों की शक्ति होती है।

कौन कर सकता है इसका पाठ?

इसका जवाब है—कोई भी। इस स्तोत्र को पढ़ने के लिए किसी विशेष योग्यता या संस्कार की आवश्यकता नहीं है। चाहे आप युवा हों या वृद्ध, गृहस्थ हों या संन्यासी—अगर आपके मन में भक्ति है, तो आप इस स्तोत्र को पढ़ सकते हैं।

अगर संस्कृत नहीं आती, तो आप इसका हिंदी अनुवाद पढ़ सकते हैं। लेकिन भाव वही रखें—विनम्रता और श्रद्धा।

निष्कर्ष: क्षमा में छुपी है मुक्ति

जीवन में कोई भी पूर्ण नहीं होता। हम सब गलतियाँ करते हैं, और यही मानवता की सच्चाई है। लेकिन जो अपनी गलतियों को स्वीकार करता है, वही सच्चे मार्ग पर चलता है।

“श्री शिव अपराध क्षमापन स्तोत्रम्” सिर्फ एक स्तोत्र नहीं, बल्कि एक आत्मिक यात्रा है। यह हमें अपने भीतर झाँकने, अपराधों को स्वीकार करने और भगवान शिव की शरण में लौटने का मार्ग दिखाता है।

अगर आपने अब तक यह स्तोत्र नहीं पढ़ा है, तो एक बार ज़रूर पढ़ें। आपको लगेगा जैसे आप खुद से मिल रहे हों। और हो सकता है, यही आपकी आत्मा को उस शांति की ओर ले जाए, जिसकी तलाश आपको हमेशा से थी।

RN Tripathy

लेखक परिचय – [रुद्रनारायण त्रिपाठी] मैं एक संस्कृत प्रेमी और भक्तिपूर्ण लेखन में रुचि रखने वाला ब्लॉग लेखक हूँ। AdyaSanskrit.com के माध्यम से मैं संस्कृत भाषा, न्याय दर्शन, भक्ति, पुराण, वेद, उपनिषद और भारतीय परंपराओं से जुड़े विषयों पर लेख साझा करता हूँ, ताकि लोग हमारे प्राचीन ज्ञान और संस्कृति से प्रेरणा ले सकें।

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