Kalidas Biography in Hindi संस्कृत साहित्य के आकाश में कालिदास एक ऐसे सूर्य के समान हैं, जिनकी रचनाएँ आज भी ज्ञान, कला और सौंदर्य का प्रकाश फैलाती हैं। माना जाता है कि एक समय वे पूर्णतः अनपढ़ और अज्ञानी थे, जिन्हें लोग “महामूर्ख” कहकर अपमानित करते थे। लेकिन अपनी लगन, साधना और माँ काली की कृपा से वे भारत के सबसे महान विद्वान और कवियों में से एक बन गए।
यह लेख आपको कालिदास के जीवन की रोचक यात्रा से लेकर उनके अद्भुत साहित्यिक योगदान तक की समस्त जानकारी प्रदान करेगा। साथ ही, उनके द्वारा रचित कालजयी ग्रंथों का विश्लेषण भी किया जाएगा, जो आज भी संस्कृत प्रेमियों और विद्वानों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
महामूर्ख से महा पण्डित कवि कालिदास
कालिदास का विस्तृत जीवन परिचय और साहित्यिक योगदान
कालिदास भारतीय साहित्य के एक अमर स्तंभ हैं, जिनकी रचनाएँ न केवल संस्कृत साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं, बल्कि विश्व साहित्य में भी उनका विशिष्ट स्थान है।
इसलिए कहा जाता है –
“पुष्पेषु जाति नगरेषु काञ्चि
नदीषु गंगा कवि कालिदास।”
भावार्थ:
जैसे फूलों में जाती पुष्प (मल्लिका) को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, नगरों में कांचीपुरम को श्रेष्ठ माना जाता है, और नदियों में गंगा सर्वोपरि है, उसी प्रकार कवियों में कालिदास की गणना सबसे महान कवि के रूप में होती है।
उनकी कविताएँ और नाटक जीवन के विविध पहलुओं – प्रकृति, प्रेम, भक्ति, राजनीति, और दर्शन का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करते हैं।उनके जीवन के बारे में ऐतिहासिक विवरण बहुत कम उपलब्ध हैं, लेकिन ऐसा माना जाता है कि वे गुप्त वंश के सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय (380-415 ई.) के दरबारी कवि थे।
कालिदास का जीवन परिचय
कालिदास के जीवन के ऐतिहासिक तथ्य बहुत सीमित हैं क्योंकि उनके जीवन पर लिखित प्रमाण बहुत कम हैं। उनके जीवन की अधिकांश कथाएँ लोक परंपराओं और किंवदंतियों पर आधारित हैं।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
जन्म स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान उन्हें उज्जैन (मध्यप्रदेश) से जोड़ते हैं, तो कुछ कश्मीर, कालिंजर (उत्तर प्रदेश) या विदर्भ (महाराष्ट्र) का मानते हैं।
उनकी शिक्षा के बारे में एक प्रसिद्ध किंवदंती है कि वे प्रारंभ में निरक्षर और सरल स्वभाव के थे, लेकिन एक विशेष घटना के बाद माँ सरस्वती की कृपा से अद्भुत ज्ञान प्राप्त हुआ।
विद्या प्राप्ति की कथा
एक कथा के अनुसार, कालिदास वाल्यवस्था में वहत वड़ा मूर्ख थे। वो जिस टेहनिय में चढ़ते थे उसी टेहनिय के मूल से काटते थे। उसि समय में एक राजकुमारी जिनके नाम विद्युन्माला है वो बहुत वडी बिद्वानी थे। उनको यो शास्त्र में परास्त करेगा उन्होंने उसको विवाह करेंगे। उसके लिए सारा भारत में से बड़े बड़े विद्वान आके राजकुमारी से शास्त्र आलोचना में हारते थे। इस अपमान को सहन नहीं कर सकते हैं। उसके कारण वे सब मिलकर एक चक्रान्त किए कि वो एक निपट मूर्ख से राजकुमारी के विवाह करवायेंगे।उसि समय में वो सब दिखते हैं कि एक व्यक्ति पेड़ पर चढ़ कर जिस डाल पर बैठा था उसी डाल को तोडरहा था। उसि समय में वे सब स्थिर किये के राजकुमारी को इसि मूर्ख से विवाह करेंगे। उसके लिए वे उसको वुलाकर कहते है कि हम ने तुमको एक राजकुमारी से विवाह करवायेंगे इसके लिए तुम्हें एक सर्त्त मानना पड़ेगा। सर्त्त है कि तुम वात मत करना। कारण –
“तावत् शोभते मूर्ख: यावत् किञ्चित् न भाषते “
अर्थात् – मूर्ख व्यक्ति तब तक ही शोभा पाता है जब तक वह कुछ बोलता नहीं है।”
इसका भाव यह है कि जब कोई अज्ञानी या मूर्ख व्यक्ति चुप रहता है, तब तक लोग उसे बुद्धिमान समझ सकते हैं, परंतु जैसे ही वह बोलता है, उसकी मूर्खता प्रकट हो जाती है। विद्वान लोग के वात को सुनकर उन्होंने अपना सहमति जताई। विद्वान लोग ने उसको राजकुमारी के पास ले गये। सब ने आलोचना के कक्षा में बैठते हैं। विद्वानियोंने पहले ही वताचुके है कि आगन्तुक व्यक्ति उनके गुरु है और वे मौन व्रत के कारण वातचित नहीं करेंगे। सिर्फ इङ्गित से ही आलोचना करेङ्गे। उसके बाद राजकुमारी ने अपनी एक उंगली दिखाई जिसके अर्थ ईश्वर एक है। परन्तु मूर्ख व्यक्ति ने सोचा कि क्या राजकुमारी मेरे एक आंख को फुटाने के लिए वता रहे हैं। मूर्ख व्यक्ति ने अपना दो उंगलियां दिखाया। जिसका अर्थ वो राजकुमारी के दोनों आंखों को फुटादेगी। परन्तु राजकुमारी ने स्वचा कि वे दो ईश्वर नहीं है एसा वोला। इसके बाद राजकुमारी ने अपने विवाह मूर्ख के साथ किया।
“सुहागरात को राजकुमारी ने अपने पति से पूछा कि वे क्या कह रहे हैं। तभी उनके पति ‘उष्ट्र’ शब्द का सही उच्चारण नहीं कर पाए और उन्होंने ‘उट्र’ बोल दिया।
राजकुमारी ने वोला –
“उष्ट्रे लुम्पति रंग वा षं वा तस्मै दत्ता विपुल नितम्बा”
ऊँट के लिए ‘र’ (रं) या ‘ष’ (षं) का क्या महत्व है, जब उसे (अर्थात् उसकी पीठ पर) विशाल कूबड़ (उभरे हुए कंधे) पहले से ही प्राप्त हैं?” राजकुमारी आपने पति एक मूर्ख है यह जानकर उनको धिक्कार दे कर वोले की जिस दिन आप एक विद्वान बनेङ्गे तव आना वरना मत आना। उनको इस वात का वुरा लगा कि आपने पत्नी ने उनको हि गालि दिया। तो वह स्थिर किये की आपने प्राण त्याग कर देंगे। जब उन्होंने अपने जीवन त्याग के पूर्व मा सरस्वती को स्मरण करते हुए जीवन त्याग कर रहथे तभि मा सरस्वती उनको वोले की तुम्हारे ७ जन्मोतक विद्या नहीं है, परन्तु में तुम्हारा भक्ति में प्रसन्नता हुई और तुम्हें आशीर्वाद दिया कि तुम नदी में ७ वार डुवकी लगाकर जब उठेगे तव तुम एक विद्वान वन सकोगे पर याद रखना सभि स्थान में तुम जियोंगे पर कभी विद्यानगरी मत याना। उसके बाद कालिदास ने डुवकि लगा कर उठे और सरस्वती के प्रशंसा करते हुए उनके शिरसे आरम्भ किया उसमें देवी क्रोधित होकर वोले की एक व्यक्ति के प्रशंसा उनके शिरसे नहीं वल्कि पैरों से करायाता है, ओर वो अभिशाप दिये की तुम्हारे मूत्यु एक नारी के कारण होगी। उसके बाद कालिदास अपने घर लौट आए और वाहर रहकर संस्कृत में वोले की –
“अनावृत कपाटं द्वारं देहि “
“अवरोध रहित (खुला हुआ) द्वार दो।” या “खुला हुआ द्वार प्रदान करो।”
उनके पत्नी ने पुच्छा –“अस्ति कश्चित् वाग् विशेष:”
क्या कोई विशेष वाणी (भाषण/कथन) है?
उसके बाद कालिदास ने “अस्ति ” से “कुमार सम्भव” “कश्चित्” से “मेघदूत” “वाग् ” से”रघुवंशम्” “विशेष” से “रुतुसंहार”।
कुमार सम्भव –
“आस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥” (कुमारसम्भवः 1.1)
अर्थ–उत्तर दिशा में देवताओं के समान पवित्र आत्मा वाला हिमालय नामक पर्वतराज स्थित है, जो पूर्व और पश्चिम के दोनों समुद्रों में अपनी सीमा फैलाए हुए है और मानो पृथ्वी के लिए एक मानदंड (सीमा रेखा) के समान खड़ा है।”
मेघदूतम् –
कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात् प्रमत्तः
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः।
यक्षश्चक्रे जनकतनया स्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥ (मेघदूतम् – 1)
अर्थ–”कोई एक यक्ष, जो अपनी प्रिय पत्नी के विरह से अत्यंत व्याकुल होकर अपने स्वामी (कुबेर) के अधिकार क्षेत्र से विमुख हो गया था, शापवश अपनी महिमा खो बैठा। उसने वर्षभर के दंड काल में रामगिरि पर्वत के आश्रमों में, जो पवित्र स्नान जलों से युक्त और घने छायादार वृक्षों से आच्छादित थे, निवास किया।”
रघुवंशम्–
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥ (रघुवंशम् 1.1)
अर्थ–जैसे शब्द और अर्थ अभिन्न होते हैं, वैसे ही मैं वाणी और अर्थ की यथार्थ सिद्धि के लिए संसार के माता-पिता माता पार्वती और भगवान शिव की वंदना करता हूँ।
रुतुसंहार –
विशेष सूर्य स्पृरणिय चन्द्रमा सदावगाहक्षतवारिसंचय:।
दिनान्त रम्योभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालेयामुपागत: प्रिये।
अर्थ–”हे प्रिये! यह विशेष दिन अत्यंत रमणीय है। सूर्य का तेज कुछ मृदु हो गया है, चंद्रमा की शीतल किरणें मन को शांति प्रदान कर रही हैं। जलाशयों में जल का संचय शीतलता का अनुभव करा रहा है। दिन का अंत अत्यंत मनोहारी है और ग्रीष्म ऋतु का उष्ण ताप अब शांत हो गया है। इस शांत वातावरण में मेरा प्रेम भी शांत होकर एक सुखद अनुभूति में बदल गया है।”
विद्या प्राप्ति के पश्चात वे उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के आश्रित बने और उनके दरबार के “नवरत्नों” में से एक माने गए।
कालिदास का साहित्यिक योगदान
कालिदास की रचनाएँ संस्कृत साहित्य में उत्कृष्ट मानी जाती हैं। उनकी कृतियाँ मुख्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित हैं: महाकाव्य, नाटक, और खंडकाव्य।
1. महाकाव्य:
कालिदास के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं:
1. रघुवंशम्:
यह महाकाव्य सूर्य वंश के महान राजा रघु और उनके वंशजों की गाथा है।
इसमें राजा दिलीप, रघु, अजातशत्रु, दशरथ, और श्रीराम के चरित्रों का वर्णन मिलता है।
काव्य में राजधर्म, पितृभक्ति और राजनीति के सिद्धांत का सुंदर समन्वय है।
2. कुमारसंभवम्:
यह महाकाव्य शिव और पार्वती के विवाह तथा उनके पुत्र कुमार (कार्तिकेय) के जन्म पर आधारित है।
इसमें प्रकृति का अद्भुत चित्रण और शिव-पार्वती के तप एवं प्रेम का मार्मिक वर्णन मिलता है।
प्रारंभिक आठ सर्गों में सुंदरता और श्रृंगार का वर्णन है, जबकि अंतिम सर्गों में वीर रस प्रमुख है।
2. नाटक:
कालिदास ने तीन प्रमुख नाटक लिखे जो संस्कृत नाट्य साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं:
1. अभिज्ञानशाकुन्तलम्
महर्षि कण्व की पुत्री शकुंतला और राजा दुष्यंत की प्रेम कथा पर आधारित यह नाटक कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है।
इसका विशेष आकर्षण प्रकृति चित्रण, नायिका की मनोवृत्ति, और श्रृंगार रस है।
यह नाटक इतना प्रभावशाली था कि प्रसिद्ध जर्मन कवि गोएथे ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
2. मालविकाग्निमित्रम्
यह नाटक राजा अग्निमित्र और राजकुमारी मालविका के प्रेम पर आधारित है।
इसमें दरबार की राजनीति और प्रेम के बीच संतुलन को दर्शाया गया है।
3. विक्रमोर्वशीयम्
यह नाटक राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के प्रेम को दर्शाता है।
नाटक में मानव प्रेम और दिव्य प्रेम का सुंदर संगम देखने को मिलता है।
3. खंडकाव्य:
1. मेघदूतम्:
यह कालिदास की सर्वाधिक मार्मिक कृति मानी जाती है।
कथा एक यक्ष की है, जो अपनी पत्नी से बिछुड़ जाता है और एक मेघ को संदेशवाहक बनाकर अपने प्रेम की व्यथा सुनाता है।
काव्य में प्रकृति के विविध रंगों का अद्भुत चित्रण मिलता है।
मेघ के माध्यम से यक्ष की व्याकुलता और प्रेम की तीव्रता का अत्यंत संवेदनशील वर्णन है।
कालिदास की काव्य विशेषताएँ
कालिदास के काव्य में कई विशेषताएँ हैं जो उन्हें अन्य कवियों से अलग करती हैं:
प्रकृति चित्रण:
कालिदास को प्रकृति का चितेरा कहा जाता है।
उनकी कविताओं में वर्षा, वसंत, मेघ, पुष्प, और पर्वतों का अत्यंत सुंदर वर्णन है।
श्रृंगार रस की प्रधानता:
कालिदास के काव्य में प्रेम और सौंदर्य का अद्भुत समावेश है।
उनके नायक-नायिकाएँ शालीन और आदर्श प्रेम का परिचय देते हैं।
भाषा और शैली:
उनकी भाषा सरल, सरस, और प्रवाहमयी है।
उपमाओं और अलंकारों का सुंदर प्रयोग करते हुए भी अर्थ की स्पष्टता बनी रहती है।
मानव जीवन का गहरा चित्रण:
कालिदास ने अपने काव्य में न केवल प्रेम और सौंदर्य, बल्कि राजनीति, धर्म, और मानव मूल्यों का भी चित्रण किया।
उनके पात्र जीवन के विभिन्न संघर्षों और भावनाओं को जीवंत करते हैं।
कालिदास का प्रभाव और महत्व:
कालिदास की कृतियाँ न केवल संस्कृत साहित्य में बल्कि विश्व साहित्य में भी अत्यधिक प्रशंसित हैं।
उनकी रचनाएँ भारतीय संस्कृति, दर्शन और जीवन मूल्यों का दर्पण हैं।
उनकी प्रसिद्धि इतनी व्यापक है कि उन्हें भारतीय साहित्य का शेक्सपियर कहा जाता है।
आज भी उनके नाटकों का मंचन होता है और उनकी कविताएँ साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं।
निष्कर्ष:
कालिदास केवल एक कवि या नाटककार नहीं थे, वे मानव हृदय के चितेरे और प्रकृति के मर्मज्ञ थे। उनके साहित्य में भावनाओं की गहराई, भाषा की मधुरता, और विचारों की ऊँचाई देखने को मिलती है। उनकी रचनाएँ न केवल मनोरंजन करती हैं, बल्कि जीवन के उच्च आदर्शों की ओर भी प्रेरित करती हैं। भारतीय साहित्य में कालिदास का स्थान अमर और अद्वितीय है।