Sanskrit Sahitya ka Itihas भारत के संविधान में चौदह भाषाओं को मान्यता दी गई है। इसके अलावा कई भाषा विज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि – इन सभी भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा है। संस्कृत का यूरोपीय भाषा परिवार सहित लगभग सभी भाषाओं से गहरा संबंध है; क्योंकि संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है।
न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी सांस्कृतिक भाषा लंबे समय से प्रचलन में रही है। अब भी विदेशों में अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत भाषा एवं साहित्य का अध्ययन एवं अध्यापन हो रहा है। प्रमुख विदेशी विद्वान मैक्स मुलर ने स्वयं को ‘मोम्फुला’ कहा और संस्कृत साहित्य को पूरी दुनिया में लोकप्रिय बनाया। ऑक्सफोर्ड, जर्मनी, हार्वर्ड आदि विश्वविद्यालयों में संस्कृत पर शोध कार्य अभी भी चल रहा है। गोएथे, विंटरनित्ज़, मैकडॉनेल, मोनियर विलियम्स, विल्सन, विलियम जोन्स, हेनरी थॉमस कोलब्रुक, ओडोर गोल्डस्टकर, अल्बर्ट वेबर, डी. ट्विटनी, जॉर्ज वोल्वर, सर जॉन अब्राहम ग्रियर्सन, आर्थर बेरेडेल कीथ, एफ। प्रमुख विदेशी विद्वानों किल्हार्श, ग्रिफिथ, जॉन बीम्स, जॉन वुड्रफ, थोबो, रिचर्ड पिस्चेल, डॉ. एम. ब्लूमफील्ड ने संस्कृत भाषा और साहित्य में बहुत बड़ा योगदान दिया है। तो आइए जानते है संस्कृत साहित्य का इतिहास।
1. संस्कृत साहित्य के इतिहास की विशिष्टता (Sanskrit Sahitya ka Itihas)
Sanskrit Sahitya ka Itihas सम्पूर्ण विश्व का संस्कृत भाषा की ओर आकर्षित होने का औचित्य है। इस भाषा में रचा गया साहित्य किसी देश या क्षेत्र विशेष का नहीं, विश्व साहित्य का है। इसके प्रत्युत्तर में विश्व चेतना एवं विश्व बन्धुत्व की महान चेतना प्रस्फुटित हुई है। भारत के संदर्भ में तो इसका महत्व और भी अधिक है। संस्कृत शिक्षा महान भारत की एकता, सद्भावना एवं संस्कृति का आधार है। यह भारत की आत्मा है। जो संस्कृत भाषा जानता है वह भारत की आत्मा को जानता है। हिमालय से लेकर जंगलों, पहाड़ों और तीर्थ स्थलों तक, महाकवि व्यास भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा महाकवि बाल्मीकि के साथ करते हैं और पंचबती में शरद ऋतु मनाते हैं। शिष्टाचार पुरुषत्व के आदर्शों से प्रेरित है। विश्वकवि कालिदास के साथ बादल पर बैठकर भारत की अतुलनीय सुंदरता का अवलोकन करते हैं।
विश्व को भारत का उपहार उसका संस्कृत साहित्य है। इस साहित्य का क्षेत्र और दायरा अनंत है। इस बहुमूल्य साहित्य की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकार आज भी संशय में हैं। अतः यह निश्चित है कि वेदों की रचना से पूर्व भारत में किसी अन्य ग्रन्थ की रचना नहीं हुई। वेद कोई तथाकथित धर्मग्रंथ नहीं हैं; यह एक सामाजिक ब्रह्मांड है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि वेदों की पुष्टि न केवल आज महसूस की जाती है, बल्कि आने वाली सदियों तक, प्रकृति के विविध परिवर्तनों और विकास के बावजूद भी अनुकरणीय बनी रहेगी। संस्कृत में वेदों के बाद ब्राह्मण, उपनिषद, वेदांत, रामायण, महाभारत और राशि कविता, नाटक, गीतात्मक कविता, चंपुकाव्य, नैतिक कविता, भक्ति कविता, अलंकारिक शास्त्र आदि की रचना की गई है। संस्कृत साहित्य के इतिहास का उद्देश्य इन ग्रंथों और उनके लेखकों की निष्पक्ष चर्चा करना है।
संस्कृत साहित्य को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है- (1) वैदिक साहित्य, (2) लौकिक साहित्य।
2. वैदिक साहित्य (Sanskrit Sahitya ka Itihas)
Sanskrit Sahitya ka Itihas साहित्यों में प्रयुक्त संस्कृत भाषा में कुछ अंतर हैं। यदि ‘वेदों’ की रचना आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व हुई मानी जाती है, तो वैदिक साहित्य की रचना का काल ईसा पूर्व माना जा सकता है। 3000 से ई.पू. 600 के बीच रखा जा सकता है. इस विशाल काल के दौरान, पृथ्वी पर सबसे अद्भुत ग्रंथ चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) थे जिनमें विभिन्न ब्राह्मण, 108 उपनिषद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, निरुक्त और ज्यतिष – ये छह वेदांग, विभिन्न गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र की रचना की है।
3. लौकिक साहित्य (Sanskrit Sahitya ka Itihas)
Sanskrit Sahitya ka Itihas महामुनि पाणिनी के आगमन के साथ, वैदिक युग में इस्तेमाल की जाने वाली संस्कृत भाषा में कुछ बदलाव किए गए और इसे सुव्यवस्थित किया गया और सुव्यवस्थित संस्कृत को लौकिक संस्कृत का नाम दिया गया। संस्कृत साहित्य का यह धर्मनिरपेक्ष युग ई.पू. में प्रारंभ हुआ। इसका प्रयोग 500 ईसा पूर्व से होता आ रहा है। इस युग में ब्यास, बाल्मीकि, कालिदास, भास, भारवि, माघ, भबभूति, श्रीहर्ष और भरत, भामह, रुद्रट, आनंदवर्धन, मम्मट, विश्वनाथ कविराज, पंडितराज जगन्नाथ जैसे प्रमुख कवि और नाटककार उभरे। उनकी अमर कविताएँ, नाटक और अलंकृत रचनाएँ युगों-युगों तक लोगों के मन को प्रेरित करती रहीं।
4. साहित्येतिहास की आवश्यकता (Sanskrit Sahitya ka Itihas)
Sanskrit Sahitya ka Itihas किसी भी भाषा में साहित्य का विकास उस भाषा की परिनिष्ठित अवस्था का सूचक होता है। एक बार जब कोई साहित्यिक रचना उस भाषा में हो जाती है तब अन्यान्य रचनाएँ भी पूरक, समवर्ती या प्रतिस्पर्धा के रूप में होने लगती हैं। पूरक रचनाओं के अन्तर्गत मूल ग्रन्थ की टीका-टिप्पणी, व्याख्या आदि होती है। समवर्ती रचनाएँ दूसरे प्रकार की होती हैं जैसे किसी ने पद्यकाव्य लिखा तो दूसरे ने गद्यकाव्य की रचना की; कहीं विष्णु- भक्ति का साहित्य लिखा गया तो कोई अन्य लेखक शिवभक्ति के साहित्य की रचना में तत्पर हो गया। प्रतिस्पर्धा वाली रचनाएँ एक ही क्षेत्र में मूलग्रन्थ से आगे बढ़ने की दिशा में होती हैं या मूल रचना के खण्डन के रूप में की जाती हैं। एक बार जब खण्डन की प्रथा चली तो इसकी सीमा नहीं रह जाती- आरोप-प्रत्यारोप का वातावरण शताब्दियों तक चलता जाता है। इस प्रकार विविध रूपों में साहित्यिक विकास होना भाषा का गौरव हैं।
साहित्यिक विकास ग्रन्थों की गुणवत्ता तथा संख्या दोनों पर आश्रित है। प्रतिभाशाली लेखकों के द्वारा कभी-कभी साहित्यिक रचना की गति अत्यन्त तीव्र बनायी जाती है तो कभी- कभी इसमें अप्रत्याशित गतिरोध उत्पन्न होता है। किसी शताब्दी में उत्कृष्ट रचनाओं की बाढ़ आ जाती है तो कोई शताब्दी किसी प्रकार साहित्य के नाम पर सामान्य कोटि के ग्रन्थों से सन्तोष करती है। फिर भी साहित्यिक विकास की धारा शुष्क नहीं होती-कुछ-न-कुछ क्रिया-कलाप प्रवृत्त होता ही रहता है। दो-तीन सौ वर्षों के अन्तराल में रचनाओं की संख्या इतनी अधिक हो जाती है कि किसी एक व्यक्ति के लिए उन सब को पढ़ना तो दूर, केवल देखना या विषयवस्तु से परिचित होना भी असम्भव हो जाता है। ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति किसी एक भाषा के साहित्य का (जैसे – हिन्दी साहित्य का, बंगला साहित्य का, तमिल साहित्य का या अंग्रेजी साहित्य का) ज्ञाता कैसे कहा जा सकता है? यदि सायणाचार्य के समान कोई कहे कि किसी ग्रन्थका आंशिक ज्ञान प्राप्त करके सम्पूर्ण ग्रन्थ का बोध करने की क्षमता आ जायेगी’, तो यह आधुनिक युग में ज्ञान- विस्तार की अथाह जल-राशि में छोटी नौका द्वारा सन्तरण का प्रयास-मात्र होगा।’ अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः’ से कौन परिचित नहीं? हम कितनी पुस्तकों का एक-एक अध्याय या भूमिका मात्र पढ़ते चलेंगे? सभी व्यक्तियों को क्या सभी पुस्तकें सुलभ भी हो सकती हैं? न्यायदर्शन के विद्वान् क्या न्यायशास्त्र में रची गयी सभी पुस्तकों की विषयवस्तु से भी परिचित हो सकते हैं? संस्कृत काव्य पढ़ने वाले क्या संस्कृत के सभी काव्यों से परिचित हो सकते हैं? दूसरे शास्त्रों या साहित्य-भेदों की बात छोड़ भी दें तो केवल अपनी रुचि के शास्त्र या साहित्य-भेद की रचनाओं का भी परिचय हमें नहीं हो सकता। किसी ग्रन्थागार में या बड़ी पुस्तक-दुकान में जाकर कुछपुस्तकों का आपात-ज्ञान हमें मिल सकता है किन्तु वह क्षणिक संस्कार के रूप में होगा और अव्यापक भी रहेगा।
5. साहित्येतिहास का स्वरूप (Sanskrit Sahitya ka Itihas)
Sanskrit Sahitya ka Itihas साहित्येतिहास में सम्बद्ध भाषा के प्रमुख तथा कालसिद्ध ग्रन्थों एवं उनके रचयिताओं का परिचय दिया जाता है। यह आवश्यक नहीं कि केवल प्रकाशित ग्रन्थों का तथा सभी प्रकाशित ग्रन्थों का विवरण उसमें दिया जाये। कुछ अप्रकाशित ग्रन्थ भी किसी भाषा के साहित्य के रत्न होते हैं जिन्हें छोड़ना अन्याय होता है। किन्तु उन ग्रन्थों की जानकारी और उपलब्धता आवश्यक है। यही कारण है कि उन्नीसवीं शताब्दी में मैक्समूलर (१८५९) तथा वेबर (१८७८) द्वारा रचे गये संस्कृत साहित्य के इतिहास में न तो भास की चर्चा थी, न ही अश्वघोष की। इन लेखकों की कृतियों का ज्ञान संस्कृत-समाज को बाद में मिला। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का ज्ञान भी २०वीं शताब्दी के प्रथम दशक में हुआ। इसलिए अप्रकाशित होने की स्थिति में उन ग्रन्थों का कहीं उपलब्ध होना आवश्यक है, तभी साहित्येतिहास में उन्हें स्थान मिल पाता है।
प्रकाशित साहित्य में भी सबका परिचय देना इतिहासकार के वश की बात नहीं क्योंकि प्रत्येक इतिहास-ग्रन्थ की कुछ व्यष्टिगत सीमाएँ हैं। आधुनिक युग के संस्कृत साहित्य के इतिहास- लेखन में प्रवृत्त व्यक्ति भी सभी रचनाओं का परिचय नहीं दे सकता। उसके समक्ष स्थान का संकोच, कालजयी रचनाओं के चयन की समस्या तथा पर्याप्त जानकारी (या सूचनाओं) का अभाव अवश्य रहता है। दक्षिण भारत में रचित आधुनिक संस्कृत साहित्य के विषय में उत्तर भारतीय संस्कृत विद्वान् को अत्यल्प सूचना रहती है और इसी प्रकार उत्तर भारत के संस्कृत ग्रन्थों को दक्षिण भारतीय विद्वान् नहीं जान पाता । आधुनिक संस्कृत साहित्य के विषय में यह बात मुख्य रूप से सत्य है। अखिल भारतीय संस्कृत सम्मेलनों के द्वारा भी यह संवादहीनता पूर्णतः दूर नहीं हो पाती।
साहित्येतिहास ग्रन्थों के साथ ग्रन्थकारों पर भी ध्यान रखता है। ग्रन्थकारों का समय, उनका वंश, पाण्डित्य तथा रचनाएँ, स्थान, पर्यटन, राजाश्रय इत्यादि बातों का महत्त्व प्राचीन संस्कृत – पण्डितों के लिए भले ही नहीं रहा हो और वे केवल ग्रन्थों की विषय-वस्तु तथा टीका-टिप्पणी से भले ही सन्तुष्ट हो जाते हों, किन्तु आधुनिक दृष्टि से सम्पन्न साहित्येतिहासकार के लिए लेखक के व्यक्तित्व से सम्बद्ध उपर्युक्त सभी बातों का महत्त्व है। आज तो प्राचीन संस्कृत लेखकों के मनोविश्लेषण से सम्बद्ध अनुशीलन भी हो रहे हैं। अतएव साहित्येतिहास कृति के साथ कृतिकार को भी समान महत्त्व देता है। किसी रचना की सही समीक्षा करने के लिए रचनाकार के परिवेश तथा मनोवृत्ति को समझना आवश्यक है। अन्यथा पूर्वाग्रह से ग्रस्त आंशिक व्युत्पत्ति ही मिल सकती है।
इसे भी पढ़े 👉🏻 भारतीय दर्शन का सामान्य परिचय
6. संस्कृत साहित्येतिहास के प्रसिद्ध कबि (Sanskrit Sahitya ka Itihas)
1.कालिदास 2.अश्वघोष 3.भारबि 4.भट्टि 5.माघ 6.मातृचेट 7.आर्यशूर 8.कुमार दास 9.भट्टभौमिक 10.प्रबरसेन 11.अभिनन्द 12.नयचन्द्रसुरि 13.मतृगुप्त 14.भर्त्तृमेण्ठ 15.रत्नाकर 16.शिवस्वामी 17.क्षोमेन्द्र 18.मङ्खक 19.श्रीहर्ष 20.वस्तुपाल 21.वेङ्कटनाथ 22.नीलकण्ठ दीक्षित 23.रामचन्द्र दीक्षित 24.कृष्णानन्द 25.सिंहनन्दी/जटासिंहनन्दी 26.वर्द्धमान 27.वीरवन्दी 28.असङ्ग 29.बादिराज 30.महासेनकबि 31.हरिश्चन्द्र 32.वाग्भट्ट प्रथम 33.अभयदेवसूरि 34.अमारचन्द्र 35.जिनपालउपाध्याय 36.माणिकचन्द्र सुरी 37.भट्टदेब सूरि 38.विजयचन्द्र सूरि 39.चन्दतिलक 40.जिनप्रभ सूरी 41.अहर्दास 42.हेम बिजयगणि 43.विराजमल्ल 44.सर्बानन्द 45.धनेश्वर सूरि 46.धनदराज 47.सोमस्तर 48.पद्मगुप्त 49.बिल्हण 50.कल्हण 51.हेमचन्द्र 52.नयनचन्द्र सूरि 53.संध्याकरनन्दि 54.निरुदिष्ठ 55.सम्भूकवि 56.वाक्पतिराज 57.डॉ। सत्यव्रत शास्त्री 58.दिगम्बर महापात्र 59.लेलिम्बराज 60.शङ्कराराद्य 61.सोमनाथ 62.कबिराज 63.माधबाचार्य 64.त्रिबिक्रम 65.विद्या चक्रवर्ती 66.अगस्त्य 67.साकल्य मल्ल 68.माधव 69.वामनभट्टबाण 70.सुकुमार 71.शंकर 72.रामबर्मा 73.शिवसूर्य 74.साल्यनरसिंह 75.अबिदित 76.चतुर्भुज 77.पुण्डरीकाक्ष मिश्र 78.भास 79.विशाखादत्त 80.शूद्रक 81.हर्षवर्धन 82.भट्ट नारायण 83.भव भूति 84.मायूराज 85.मुरारि 86.राजशेखर 87.क्षेमीश्वर 88.शक्तिभद्र 89.जयदेव 90.हनुमन्नाटक 91.भरत 92.भामह 93.दण्डी 94.वामन 95.उभ्भट 96.रुद्रट 97.आनन्द वर्धन 98.अभिनवगुप्त 99.कुन्तक 100.महिमभट्ट 101.धनञ्जय 102.भोजराज 103.मम्मट 104.क्षेमेन्द्र 105.रुय्यक 106.विश्वनाथ कविराज 107.पण्डित राज जगन्नाथ 108.वाग्भट्ट 109.बाण भट्ट 110.मयुर भट्ट 111.अमरुक
7. संस्कृत साहित्य के नारी कबि (Sanskrit Sahitya ka Itihas)
1.बिज्जिका 2.सुभद्रा 3.शीलाभट्टारिका 4.प्रभुदेवी 5.फल्गुहस्तिनी 6.बिकट नितम्बा 7.जघनचपला 8.इन्दुलेखा 9.मरुला 10.मोरिका 11.विद्या बा बिज्जा 12.भयदेवी 13.प्रियम्बदा 14.बैजयन्ती 15.त्रिवेणी 16.ज्ञानसुंदरी 17.रामभद्राम्बा 18.तिरुमल्लाम्बा 19.देवकुमारिका 20.गङ्गादेवी
दोस्तों देखा जाए तो संस्कृत साहित्य के बहुत सारे कवि है। और इनमें से कुछ प्रसिद्ध कवि है जिनका नाम कहीं न कहीं सबसे ऊपर आता है। और रही बात संस्कृत साहित्य इतिहास की, अगर हम संस्कृत साहित्य के ऊपर लिखने बैठेंगे तो वह कभी खत्म ही नहीं होगा और हम आपको जो संस्कृत साहित्य के बारे में बताएं ये संस्कृत साहित्य का सामान्य कुछ बातें।
तो दोस्तों ये था संस्कृत साहित्य का इतिहास उम्मीद है आपको पसंद आया होगा।
धन्यवाद 🙏🏻