पुरुषसूक्तम् | Purusha Suktam

Purusha Suktam – वेदों में प्राप्त सूक्तों में ‘पुरुषसूक्त’ का बड़ा महत्त्व है। पुरुषसूक्त में सोलह मन्त्र है। पुरुषसूक्त के ऋषि नारायण और देवता ‘पुरुष हैं। वेदोक्त पूजा-अर्चना में पुरुषसूक्त के सोलह मन्त्रों का प्रयोग देवताओं के षोडशोपचार-पूजन तथा यजन में सभी स्थान पर होता है। इस सूक्त में विराट् पुरुष परमात्मा की महिमा निरूपित है और सृष्टि-निरूपण की प्रक्रिया बतायी गयी है। उस विराट् पुरुष को अनन्त सिर, नेत्र और चरणवाला बताया गया है। इस सूक्त में बताया गया है कि यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड उनकी एकपाद्विभूति अर्थात् चौथा अंश है। शेष तीन अंश शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, कैलास, साकेत आदि) हैं। यहाँ यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में प्रथम सोलह मन्त्रों में वर्णित पुरुषसूक्त को सानुवाद दिया जा रहा है-

Purusha Suktam

Purusha Suktam | पुरुषसूक्तम्

पुरुषसूक्त(शुक्ल यजुर्वेद)

ॐ सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्त्रपात् ।
स भूमिᳬ सर्वत स्मृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥

परब्रह्म परमात्मा सहस्रों सिर, आँख और पैरोंवाले हैं, वे सब ओर भूमि को व्याप्त करके भी जगत-प्रपंचों से दस अंगुल दूर ही स्थित रहते हैं।।१।।

पुरुष एवेदᳬ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।॥ २ ॥

परब्रह्म परमात्मा (पुरुष) ही इस सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हैं। जो भूतकाल में था और जो भविष्य में होगा – वह पुरुष ही है। वह अमृतत्व का भी स्वामी है और वही जीव एवं उसके शरीर का भी स्वामी है।॥२॥

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥

इस पुरुष की महिमा इतनी है और वह पुरुष इससे भी अधिक महिमावान् है। यह समस्त भूत इसका चतुर्थांश मात्र है। इसका तीन चौथाई अमृतस्वरूप है और वह द्युलोक में है।॥३॥

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४॥

वह जो तीन चौथाई पुरुष था, वह संसार से स्पर्शरहित ब्रह्मरूप होने के कारण ऊर्ध्व को चला गया और फिर इसका चतुर्थांश मात्र इस ब्रह्माण्ड में प्रपंच रूप में परिणत हुआ, अपनी उस पूर्णावस्था से वह परमात्मा (पुरुष) अपने चतुर्थांश के द्वारा सर्वत्र परिव्याप्त हुआ।।४।।

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५ ॥

उस परमात्मपुरुष से विराट् उत्पन्न हुआ अर्थात् ब्रह्माण्डरूपी शरीर उत्पन्न हुआ। उस विराट् शरीर से एक और पुरुष उत्पन्न हुआ, जो इस ब्रह्माण्डरूपी शरीर का देहाभिमानी हुआ। विराट् पुरुष के अतिरिक्त देव, तिर्यक् मनुष्य आदि की सृष्टि हुई। उसके बाद भूमि की सृष्टि हुई। भूमि के अनन्तर जीवों के निवास-स्थानों का सृजन हुआ।।५।।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६ ॥

उस यज्ञपुरुष से दधि, घृत आदि भोज्य पदार्थ सम्पादित हुए। तब उसने वायुदेवता सम्बन्धी प्रधान पशुओं को बनाया, जो ग्राम्य (गाँवों में रहनेवाले) एवं आरण्य (जंगल में रहनेवाले)- दोनों हैं।॥६॥

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाᳬसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७ ॥

उस यज्ञपुरुष से ऋचाएँ और सामगान उत्पन्न हुए। उसी से गायत्री आदि छन्द उत्पन्न हुए और यजुर्वेद भी उसी से उत्पन्न हुआ।।७।।

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जात अजावयः ॥ ८ ॥

उसी यज्ञपुरुष से अश्व उत्पन्न हुए, इसके अतिरिक्त गर्दभ, खच्चर आदि जिनमें ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत थे, उत्पन्न हुए। उसी से गाएँ उत्पन्न हुईं तथा उसी से भेड़-बकरियाँ भी उत्त्पन्न हुईं।।८।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९ ॥

उस प्रथम उत्पन्न पुरुष को यज्ञार्थ दर्भों से प्रोक्षित किया; उससे देवों, साध्यगणों और ऋषियों ने यजन किया।।९।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १०॥

जिस पुरुष की ऋषियों ने कल्पना की, कितने प्रकार से उन्होंने उसको कल्पित किया? इसका मुख क्या था? इसकी भुजाएँ क्या थीं? इसकी जंघाएँ क्या थीं? इसके पैर किसे कहे जाते हैं? ॥१०॥

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भया शूद्रो अजायत ॥ ११ ॥

ब्राह्मण इसका मुख था, क्षत्रिय इसके बाहु थे, दोनों जंघाएँ वैश्य हुईं और उस पुरुष के चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए।।११।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२ ॥

चन्द्रमा उस पुरुष के मन से उत्पन्न हुआ, नेत्रों से सूर्य उत्पन्न हुए। उसके कानों से वायु और प्राण उत्पन्न हुए तथा मुख से अग्नि उत्पन्न हुई।॥१२॥

नाभ्या आसीदन्तरिक्ष शीर्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ १३॥

उस पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से द्युलोक उत्पन्न हुआ। इसके पैरों से भूमि उत्पन्न हुई और कानों से दिशाएँ उत्पन्न हुईं। उसी प्रकार उस पुरुषं से ही समस्त लोक कल्पित हुए।।१३।।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४॥

जब उस पुरुषरूपी हवि से देवों ने यज्ञरूप सृष्टि को विस्तारित किया था, तब वसन्तऋतु इस यज्ञ में घृत, ग्रीष्मऋतु ईंधन और शरॠतु हवि थी।।१४।॥

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५ ॥

जब देवताओं ने मानस यज्ञ किया, तो उन्होंने विराट् पुरुष को ही यज्ञपशु के रूप में भावित किया। उस समय क्षीरसागर आदि सात समुद्र उस यज्ञ की परिधि हुए अर्थात् भारतवर्ष में वे यज्ञ हुए। गायत्री, अति जगती और कृती- ये सात-सात छन्दोंवाले तीनों छन्दवर्ग उसमें समिधा हुए॥१५॥

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६ ॥

देवताओं ने यज्ञ से ही यज्ञपुरुष का यजन किया था, उस पूजन से वे धर्म को धारण करनेवाले हुए। उन महात्माओं ने उस यजन के द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया था, जहाँ पूर्वकाल में साध्य और देवगण रहते थे॥१६॥

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पुरुषसूक्त (कृष्ण यजुर्वेद)

ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥

उन परमपुरुषके सहस्त्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्वकी समस्त भूमि (पूरे स्थान) को सब ओरसे व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं। अर्थात् वे ब्रह्माण्डमें व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं। [यह मन्त्र भगवान् विष्णुके देशगत विभुत्वका प्रतिपादक है।] ॥ १ ॥

ॐ पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २॥

यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होनेवाला है, यह सब वे परमपुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे अमृतत्व (मोक्षपद) के तथा जो अन्नसे (भोजनद्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर – शासक) हैं। [यह मन्त्र भगवान्के सर्वकालव्यापी रूपका वर्णन करता है।] ॥ २ ॥

ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥

यह भूत, भविष्य, वर्तमानसे सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुषका वैभव है। वे अपने इस विभूति विस्तारसे महान् हैं। उन परमेश्वरकी एकपाद विभूति (चतुर्थांश) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूतिमें शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं। [यह मन्त्र भगवान्‌के वैभवका वर्णन करता है और नित्य लोकोंके वर्णनद्वारा उनके मोक्षपदत्वको भी बतलाता है।] ॥ ३ ॥

ॐ त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥४॥

वे परमपुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत्से परे त्रिपा‌द्विभूतिमें प्रकाशमान हैं। (वहाँ मायाका प्रवेश न होनेसे उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है।) इस विश्वके रूपमें उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है। अर्थात् एक पादसे वे ही विश्वरूप भी हैं। इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड एवं चेतनमय उभयात्मक जगत्‌को परिव्याप्त किये हुए हैं। [इस मन्त्रमें भगवान्के चतुर्ग्यूहरूपमेंसे चतुर्थ अनिरुद्धरूपका वर्णन हुआ है। यही रूप एकपाद ब्रह्माण्डवैभवका अधिष्ठान है।] ॥ ४॥

ॐ तस्माद् विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः ॥५॥

उन्हीं आदिपुरुषसे विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परमपुरुष ही विराट्के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) हुए। वह (हिरण्यगर्भ) उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुआ। बादमें उसीने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये। [इस मन्त्रमें श्रीनारायणसे माया एवं जीवोंकी उत्पत्तिका वर्णन है।] ॥ ५ ॥

ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ ६ ॥

देवताओंने उस पुरुषके शरीरमें ही हविष्यकी भावना करके यज्ञ सम्पन्न किया। इस यज्ञमें वसन्त ऋतु घृत, ग्रीष्म ऋतु इन्धन और शरद्- ऋतु हविष्य (चरु-पुरोडाशादि विशेष हविष्य) हुए। अर्थात् देवताओंने इनमें यह भावना की। [इस मन्त्रमें सृष्टिरूप यज्ञका वर्णन है और आगे आठ मन्त्रोंतक वही है।] ॥ ६ ॥

ॐ तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ७॥

सबसे प्रथम उत्पन्न उस पुरुषको ही यज्ञमें देवताओं, साध्यों और ऋषियोंने (पशु मानकर) कुशके द्वारा प्रोक्षण करके (मानसिक) यज्ञ सम्पूर्ण किया। [इस मन्त्रमें सृष्टि-यज्ञके साथ मोक्षका वर्णन भी किया गया है।] ॥ ७॥

ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ॥८॥

उस ऐसे यज्ञसे जिसमें सब कुछ हवन कर दिया गया था, प्रशस्त घृतादि (दूध, दधि प्रभृति) उत्पन्न हुए। इस उस यज्ञरूप पुरुषने ही वायुमें रहनेवाले, ग्राममें रहनेवाले, वनमें रहनेवाले तथा दूसरे पशुओंको उत्पन्न किया। (तात्पर्य यह कि उस यज्ञसे नभ, भूमि एवं जलमें रहनेवाले समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई और उन प्राणियोंसे देवताओंके योग्य हवनीय प्राप्त हुआ।) ॥ ८ ॥

ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत ॥ ९ ॥

जिसमें सब कुछ हवन किया गया था, उस यज्ञपुरुषसे ऋग्वेद और सामवेद प्रकट हुए। उसीसे गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए। उसीसे यजुर्वेदकी भी उत्पत्ति हुई ॥ ९॥

ॐ तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्ञ्जाता अजावयः ॥ १० ॥

उस यज्ञपुरुषसे घोड़े उत्पन्न हुए। इनके अतिरिक्त नीचे-ऊपर दोनों ओर दाँतोंवाले (गर्दभादि) भी उत्पन्न हुए। उसीसे गौएँ उत्पन्न हुईं और उसीसे बकरियाँ और भेड़ें भी उत्पन्न हुईं ॥ १० ॥

ॐ यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते ॥ ११ ॥

देवताओंने जिस यज्ञपुरुषका विधान (संकल्प) किया, उसको कितने प्रकारसे (किन अवयवोंके रूपमें) कल्पित किया, इसका मुख क्या था, बाहुएँ क्या थीं, जंघाएँ क्या थीं और पैर कौन थे- यह बताया जाता है ॥ ११ ॥

ॐ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्धयां शूद्रो अजायत ॥ १२ ॥

ब्राह्मण इसका मुख था। (मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए।) क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बना। (दोनों भुजाओंसे क्षत्रिय उत्पन्न हुए।) इस पुरुषकी जो दोनों जंघाएँ थीं, वही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए, और पैरोंसे शूद्र-वर्ण प्रकट हुआ ॥ १२ ॥

ॐ चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत ॥ १३ ॥

इस यज्ञपुरुषके मनसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए। नेत्रोंसे सूर्य प्रकट हुए। मुखसे इन्द्र और अग्नि तथा प्राणसे वायुकी उत्पत्ति हुई ॥ १३॥

ॐ नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ १४ ॥

यज्ञपुरुषकी नाभिसे अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ। मस्तकसे स्वर्ग प्रकट हुआ। पैरोंसे पृथिवी, कानोंसे दिशाएँ हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुषमें ही कल्पित हुए ॥ १४ ॥

ॐ सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५ ॥

देवताओंने जब यज्ञ करते समय (संकल्पसे) पुरुषरूप पशुका बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकारके छन्दोंकी (गायत्री, अतिजगती और कृतिमेंसे प्रत्येकके सात-सात प्रकारसे) समिधा बनी ॥ १५ ॥ [इस मन्त्रमें सृष्टि-यज्ञकी समिधाका वर्णन है।]

ॐ वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-
मादित्यवर्णं तमसस्तु पारे।
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो
नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते ॥ १६ ॥

तमस् (अविद्यारूप अन्धकार) से परे आदित्यके समान प्रकाशस्वरूप उस महान् पुरुषको मैं जानता हूँ। सबकी बुद्धिमें रमण करनेवाला वह परमेश्वर सृष्टिके आरम्भमें समस्त रूपोंकी रचना करके उनके नाम रखता है; और उन्हीं नामोंसे व्यवहार करता हुआ सर्वत्र विराजमान होता है॥ १६ ॥ [इस मन्त्रमें और इसके आगेके मन्त्रमें भी श्रीहरिके वैभवका वर्णन है।]

ॐ धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार
शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्त्रः ।
तमेवं विद्वानमृत इह भवति
नान्यः पन्था विद्यते अयनाय ॥ १७॥

पूर्वकालमें ब्रह्माजीने जिनकी स्तुति की थी, इन्द्रने चारों दिशाओंमें जिसे (व्याप्त) जाना था, उस परम पुरुषको जो इस प्रकार (सर्वस्वरूप) जानता है, वह यहीं अमृतपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग निज-निवास (स्वस्वरूप या भगवद्धाम) की प्राप्तिका नहीं है ॥ १७ ॥

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा-
स्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त
यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १८॥

देवताओंने (पूर्वोक्त रूपसे) यज्ञके द्वारा यज्ञस्वरूप परम पुरुषका यजन (आराधन) किया। इस यज्ञसे सर्वप्रथम सब धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मोंके आचरणसे वे देवता महान् महिमावाले होकर उस स्वर्गलोकका सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं॥ १८ ॥ [इस मन्त्रमें सृष्टियज्ञ एवं मोक्षके वर्णनका उपसंहार है।]

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